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– फोटो : अमर उजाला
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आजादी की लड़ाई में रानी लक्ष्मी बाई, सरोजनी नायडू और अरुणा आसिफ अली सरीखी महिलाओं का भले ही अहम योगदान रहा हो, लेकिन आधी आबादी का राजनीति में भागीदारी का सफर आसान नहीं रहा। इंदिरा गांधी के रूप में दुनिया की दूसरी महिला प्रधानमंत्री देने का श्रेय भारत को जाता है। इसके बावजूद घूंघट से बाहर निकल रुढ़िवादी पंरपराओं को तोड़ चुनावी राजनीति में भाग लेने में महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा। चुनावी राजनीति में महिलाओं की सक्रियता की क्या हालत थी, यह इसी से जाहिर होता है कि 1967 में आम चुनाव के साथ-साथ हुए जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक महिला उम्मीदवार थी।
अमर उजाला में 15 फरवरी 1967 में प्रकाशित खबर के अनुसार पूरे राज्य में विधानसभा की 75 सीटों के लिए 185 प्रत्याशी मैदान में थे। छम्ब चुनाव क्षेत्र से लीला देवी ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था। उन्होंने इस निर्वाचन क्षेत्र में मुकाबला महिला बनाम पुरुष का कर दिया था। छम्ब में कुल महिला मतदाता 45 फीसदी थी। महिला उम्मीदवार ने मतदाओं से चुनाव प्रचार के दौरान अपील की कि वह पुरुष उम्मीदवार की जगह उन्हें ही वोट दें, लेकिन यह उनकी अपील काम नहीं आई और यहां से कांग्रेस के छाजूराम विजयी हुए।
पहली लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व
अगर लोकसभा की बात करें तो वहां भी महिलाओं का ज्यादा प्रतिनिधित्व नहीं था। पहली लोकसभा में 22 महिलाएं ही चुनाव जीती थीं जो 489 की कुल संख्या का 4.4 प्रतिशत थीं। महिला सशक्तीकरण की तमाम बातें होने के बावजूद सत्रहवीं लोकसभा में कुल 545 में से 78 महिला सांसद रहीं जो कुल संख्या का 14.39 फीसदी है।
सात दशक बाद मिला महिला आरक्षण
संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए सरकार ने सात दशक बाद 2023 में विशेष सत्र बुलाकर 128वीं संविधान संशोधन पारित कराया। इसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम नाम दिया गया। 2029 में होने वाले लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है।
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