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अमर उजाला आगरा का कार्यालय
– फोटो : अमर उजाला
विस्तार
अमर उजाला को पाठकों तक पहुंचाने का जो जुनून सन 1948 में था, वह जुनून वक्त के साथ जवां होता चला गया। बदलते परिवेश में बहुत कुछ बदला लेकिन अमर उजाला के साथ कुछ लोगों के रिश्ते वक्त के साथ-साथ मजबूत होते चले गए। इन रिश्तों में एक रिश्ता हमराहियों का भी है।
हमराही… पाठक के हाथ तक अखबार पहुंचाने वाली आखिरी कड़ी। सामान्य शब्दों में अखबार को घर-घर पहुंचाने वाले। अमर उजाला के लाखों पाठक इन्हीं हमराही के दम पर देश, दुनिया और शहर की खबरों से रूबरू होते हैं। इनकी संकल्प शक्ति के आगे आंधी, बारिश, तूफान, सर्दी का कोई मतलब नहीं हैं। देर रात 3 से 3.30 बजे के बीच सेंटर पहुंचना है..। यह इनका लक्ष्य रहता है। वहां से अमर उजाला अखबार पाठकों के घर तक पहुंचता है।
घर की तीन पीढ़ियां हैं जुड़ी
वर्ष 1952 से अमर उजाला अखबार के वितरण कार्य से जुड़े नाई की मंडी सेंटर के आमिर खान का कहना है कि घर की तीन पीढि़यां जुड़ी हुई हैं। हमारे बाबा ने 6 पैसे का अखबार बेचा है। मेरे वालिद मोहम्मद हनीफ ने लगभग पांच दशकों तक अमर उजाला के नाई की मंडी सेंटर से अखबार का वितरण देखा। हमें अच्छी तरह ध्यान है मेरे बाबा मोहम्मद शिराज कई बार समाचार पत्र लेकर पैदल जाते थे। अब साइकिल के बाद स्कूटी और मोटर साइकिल तक अखबार के वितरण का काम पहुंच चुका है।
अमर उजाला से जुड़ी हैं हमारी आस्था
वर्ष 1975 से भगवान टॉकीज केंद्र से जुड़े राजीव गुप्ता का कहना है कि जिस समय शहर सो रहा होता है, उस समय हम सच को संजोकर शहर के कई इलाकों में पहुंचाने का काम करते रहैं। मेरे भाई भी इस काम में मेरे साथ रहते हैं। मेरा पापा जगदीश चंद गुप्ता भी अखबार वितरण से जुड़े थे। हमारी अमर उजाला से आस्था जुड़ी हैं।
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