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मैनपुरी। बुजुर्ग दादी को जिन चिकित्सकों में अपनी पोती के लिए भगवान नजर आ रहा था, वह ही उस मासूम की मौत का कारण बन गए। अपनी पोती की जिंदगी के लिए चिकित्सकों के सामने रोती रही, उसकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसके आंसू देखकर चिकित्सकों को दया नहीं आई। इलाज न मिलने पर दादी के हाथों में चार वर्ष की मासूम ने यह संसार छोड़कर चली गई। गांव बीलों निवासी संजय कुमार की चार माह की पुत्री की जब तबीयत खराब हुई, तो उसे जिला अस्पताल का ही ख्याल मन में आया। उसे लगा सरकारी अस्पताल में बड़े चिकित्सक बेटी को देख लेंगे तो वह ठीक हो जाएगी। लेकिन उसे कहां पता था कि ये चिकित्सक ही बेटी की मौत का कारण बन जाएंगे। सौ शैया अस्पताल से शुक्रवार को सुबह आठ बजे निकाले जाने के बाद संजय अपनी बुजुर्ग मां के साथ बेटी का इलाज कराने इमरजेंसी गया था। दादी की गोद में मासूम कंबल में भी ठिठुर रही थी। होठ नीले पड़ते जा रहे थे, जिसे देखकर संजय और उसकी मां के चेहरे के रंग भी उड़ चुके थे।
जिला अस्पताल की इमरजेंसी में जब डॉक्टर से बच्ची को देखने की विनती की तो उन्होंने उपचार देने के स्थान पर फिर से सौ शैया अस्पताल वापस भेज दिया। वहां पर वापस लौटने पर भी कोई इलाज नहीं मिला, तो फिर से इमरजेंसी की तरफ दौड़ पड़ा। जब तक मासूम की हालत और भी खराब हो चुकी थी। पोती की हालत बिगड़ती देख दादी की आंख से आंसू बहना शुरू हो गए थे। इमरजेंसी में मौजूद डॉक्टर के सामने वह दोनों हाथ जोड़कर इलाज की भीख मांगने लगी। लेकिन डॉक्टर देखने को तैयार नहीं हुए। उन्हें न तो चार माह की मासूम पर दया आई और न ही बिलख रही वृद्धा पर। हारकर वह जिला अस्पताल की ओपीडी जा पहुंची, लेकिन यहां पर भी इलाज नहीं मिला। एक बार फिर से दादी हिम्मत कर इमरजेंसी पहुंची। इस बीच दो घंटे से अधिक का समय गुजर चुका था। शायद मासूम भी तब तक दम तोड़ चुकी थी। बहुत प्रयास के बाद यहां डॉक्टर साहब ने मासूम का हाथ पकड़ा, तो उन्हें कहने में देर न लगी कि अब मासूम इस दुनिया में नहीं रही। इतना सुनते ही संजय और उसकी मां फूट-फूटकर रोने लगीं। रोते हुए भी उसके मुंह से एक ही बात निकल रही थी कि डॉक्टर साहब अगर पहले देख लेते तो हमारी बिटिया बच जाती।
जिला अस्पताल में मरीजों को मिलती है दुत्कार
मरीजों के साथ जिला अस्पताल में ये व्यवहार कोई नई बात नहीं है। हर रोज मरीजों को यहां दुत्कार ही मिलती है। केवल रसूख और सिफारिश के साथ पहुंचने वालों को ही चिकित्सक और स्टाफ हाथों-हाथ लेते हैं। असहाय और कमजोर मरीजों को तो चिकित्सक देखने तक नहीं पहुंचते हैं। इमरजेंसी वार्ड में जहां चिकित्सकों को तत्काल मरीज को उपचार देना चाहिए, वहां चिकित्सकों की लेटलतीफी चलती है। लेकिन डॉक्टर और स्टाफ के आगे मरीज और उसके तीमारदार की एक नहीं चलती है।
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