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दिन में सिर्फ एक बार, कठिन साधना के साथ अन्न-जल ग्रहण करते हैं जैन संत
– फोटो : अमर उजाला
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हम और आप थाली या किसी पात्र में ही भोजन करते हैं। उसी तरह पानी भी पीते हैं। यदि पात्र ना हो तो भोजन व जल ग्रहण करने में समस्या खड़ी हो जाएगी। लेकिन जैन दिगंबर संतों का जीवन बिल्कुल भिन्न है। उनके अन्न-जल ग्रहण करने की प्रक्रिया एकदम भिन्न होती है। दिगंबर संत ना थाली में भोजन करते हैं और ना ही गिलास से पानी पीते हैं।
दिगंबर संत दोनों हाथ जोड़कर अंजुलि बनाकर उसी को पात्र बना लेते हैं। फिर इसी में अन्न और जल ग्रहण करते हैं। उसी में भोजन का ग्रास लेते हैं। अंजुलि में ही पानी लेते हैं। भोजन लेने से पहले जैन संत भगवान की प्रतिमा के समक्ष मन में एक संकल्प ले लेते हैं। वह संकल्प इस तरह का होता है कि उसके बारे में सिर्फ दिगंबर संत ही जानते हैं। उसी संकल्प को लेकर वह मंदिर से निकलते हैं। जैन मुनि के संकल्प के अनुसार जिस जगह भक्तजन उनका आह्वान करते हैं, उसी जगह वह आहर (भोजन) ग्रहण करते हैं।
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जैन मुनि के आव्हान के दौरान भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री भक्तों हाथ में होती है जैसे श्रीपाल, पांच फल आदि। जैन मुनि को आहार देने से पहले भक्तजन पूजन करते हैं। जैन मुनि फल, सब्जी, दूध, पानी सब कुछ अंजुलि में ही लेते हैं। जिस स्थान पर भोजन लेते हैं वहां बाद में मंगल गायन के साथ आरती की जाती है।
एक खास बात और है कि जैन संत बैठकर नहीं, खड़े होकर भोजन लेते हैं। भोजन जितने समय तक करते हैं उस समय तक बिल्कुल मौन रहते हैं। मुख से कुछ भी नहीं बोलते। श्रावक उनको जो अंजुलि में देते हैं वही ग्रहण करते हैं। पूरी शुद्धता के साथ उनका भोजन बनता है। बाजार की किसी वस्तु का सेवन नहीं करते हैं। जो लोग उनका भोजन देते हैं वह बिल्कुल पवित्र वस्त्र पहने होते हैं।
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यहां बताने वाली बात यह भी है कि भोजन के बीच में यदि ग्रास में बाल का टुकड़ा निकल आए तो उसी जगह पर जैन संत भोजन और अन्न-जल का त्याग कर देती हैं जितना ले चुके होते हैं उतना ही लेते हैं। चींटी या बाल का टुकड़ा निकल आने पर अंतराय माना जाता है और इस अंतराय को मानते हुए वह उसी स्थान पर इस ग्रास छोड़कर बिना पूरा भोजन किए चले जाते हैं।
कितनी ही भीषण गर्मी पड़ रही हो जैन संत 24 घंटे में सिर्फ एक बार ही अन्न-जल ग्रहण करते हैं। जब भोजन लेते हैं इस समय जितना पानी पी सकते हैं उतना पी लेते हैं उसके बाद वह जल भी ग्रहण नहीं करते फिर अगले दिन ही अन्न जल ग्रहण करते हैं। इतनी कठिन तपस्या जैन संतों की होती है।
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